विनय आने पर स्वतः आ जाती लब्धि : जिनमणिप्रभसूरीश्वर

गौतम गणधर की तरह समर्पण, श्रद्धा, विनयवान बनने की दी प्रबल प्रेरणा

चेन्नई 08.07.2023 : संसार में कुछ क्षण अत्यधिक महत्वपूर्ण होते है, जब हम उल्लास के वातावरण में भर जाते है, धनवान बन जाते है। जैसे मरीचि का वह भव जिस समय उसे सम्यक् की प्राप्ति हुई, परम की ओर चढ़ने की सिढ़ी प्राप्त हुई। उपरोक्त विचार श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में धर्मपरिषद् को संबोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने उत्तराध्यन सूत्र के प्रथम अध्ययन के पहले गाथा की आज तीसरे दिन भी विशेषता बताते हुए कहें।

◆ रोम रोम में हो विनय का वास

आचार्य भगवंत ने आगे कहा कि विनय यानि वि+नय। वि = विशिष्ट, नय = विचार। विवेक अर्थात देश, काल, भाव के आधार पर भविष्य की योजना बनाना। जो व्यक्ति विवेक पूर्वक विचार करता है, वह विनयवान बन जाता है। विनयवान व्यक्ति समर्पण भाव से चिन्तन मंथन करता है। परमात्मा के प्रति, परमात्म वाणी के प्रति जिसके रोम रोम में विनय समाया हुआ होता है, वह विनयवान होता है। श्रद्धा, समर्पण होने से परम् तत्व की प्राप्ति कर सकता है। स्वयं परमात्म पद को पा सकता है।

◆ गौतमस्वामी की तरह बने पूर्ण समर्पित

 आचार्य प्रवर ने जनमेदनी को जीवन विकास के लिए विनयवान बनने की महत्ता बताते हुए प्रेरणा दी कि भगवान महावीर का प्रथम शिष्य गणधर गौतमस्वामी जो स्वयं चार ज्ञान के धनी थे, फिर भी भगवान के प्रति निश्चल भाव से, समर्पण, श्रद्धा, भक्ति, विनय से उनके प्रति समर्पित थे। छोटे से प्रश्न के उत्तर के लिए भी भगवन से वन्दना कर, निवेदन कर समाधान पाते। भगवान के समवसरण में अन्य शिष्यों की तरह नमन करते हुए वाणी का श्रवण करते। आनन्द श्रावक के अवधि ज्ञान के बारे में बताने और भगवान द्वारा सत्य को जानने पर, तपस्या का बिना पारणा किये बिना, आनंद श्रावक से क्षमायाचना करने के लिए चले गए, क्षमायाचना की। गौतमस्वामी अनन्त लब्धि सम्पन्न थे, हम उनके जैसे लब्धि प्राप्ति की कामना भी करते है, लेकिन वे तो पूर्ण विनयवान थे। हमें भी पहले विनयवान बनना होगा, विनय ही धर्म का मूल है और विनय से ही लब्धियाँ पाई जा सकती है।

★ मर्यादाएँ विनय से होती फलिफूत

आचार्यवर ने कहा कि परिवार, समाज, देश हो, सामाजिक या आर्थिक संस्थान हो, चाहे धर्म संघ हो, सब मर्यादाओं से चलते हैं। उसका पूर्णतया पालन विनय से ही हो सकता है। जहां इच्छाओं, तर्कों, वितर्कों से आग्रहवृत्ती चलती है, वहां मर्यादाएं फलिफूत नहीं होती। वह संस्थान बिखराव की ओर जा सकता है।

◆ गुरु की इच्छा को समझ कर कार्य करें

विनयवान की एक और परिभाषा बताते हुए कहा कि विनयवान वहीं शिष्य हो सकता है जो 1. गुरु की आज्ञा, आदेश को स्वीकार करें, 2. गुरु के इंगित, हाव-भाव को देख कर कार्य करें और 3. गुरु की इच्छा को समझ कर कार्य करें। यहीं सूत्र परिवार, समाज, राष्ट्रीय के लिए भी उपयोगी है। गुरु शिष्य के विकास के लिए जहां उसे प्रोत्साहन, पुरुस्कृत भी करता है, वहीं गलती पर उसे उपालम्भ भी देता है। जो हमारे जीवन की गलतियों को बताता है, सुधार करवाता है, उसे परम् उपकारी समझना चाहिए। भव्यात्मा के लिए छोड़ने योग्य है संसार, लेने योग्य संयम और पाने योग्य मोक्ष है। 

◆ बच्चों की गलती पर दे सजा

 गुरुवर ने बालकों के सर्वांगीण विकास के लिए माता-पिता, अभिभावकों से कहा कि जहा आप अपने बच्चे की अच्छी बातों पर उसे थपथपी देते है, लाड प्यार करते है, पुरस्कार भी देते है। तो छोटा बच्चा समझ उसे उसकी गलती को टालना नहीं अपितु सजा भी देनी चाहिए, डांटना भी चाहिए। आपकी वह डांट फटकार बच्चे को भविष्य को उजाले की ओर ले जाने वाली हो सकती है। हमें भगवान महावीर की देशना रास्ता तो बता सकती है, उस पर चलना, चरणन्यास करना तो स्वयं को ही होगा, तभी हम भी मंजिल को पा सकते है। परमात्म पद को पा सकते है।

◆ विधि विधान से हुई चल प्रतिष्ठा

व्याख्यान के पश्चात प्रवचन स्थल में चातुर्मास के दौरान आराधना करने हेतु परमात्मा मुनिसुव्रतनाथ, गौतमस्वामी एवं दादा गुरुदेव की चल प्रतिष्ठा मंगल मंत्रोच्चार, विधि विधान से हुई। प्रतिष्ठाकर्ता परिवारों का ट्रस्ट मण्डल की ओर से बहुमान किया गया।

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