मनुष्य भव में ही सम्भव राग द्वेष की गांठों को खोलना : जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी


★ खतरगच्छ दिवस पर गौरवशाली इतिहास को किया उजागर

 चेन्नई 23.07.2023 ; श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में 1005वॉ खतरगच्छ दिवस गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. के सान्निध्य में मनाया गया।

गच्छाधिपति ने कहा कि हमारा जीन शासन घना छायादार, विशाल वटवृक्ष है, जिस पर बड़ीबड़ी, छोटीछोटी डालियां है, हरे हरे पत्ते है। जितनी भी बड़ीबड़ी है डालियाँ मूल गच्छ है, उनमें निकली छोटीछोटी डालियाँ समुदाय है। हरे हरे पत्ते साधु-साध्वीयाँ, श्रावक-श्राविकाएं है। इस तरह चतुर्विध धर्मसंघ का वटवृक्ष है। यह वटवृक्ष सम्पूर्ण होता है तभी हमें छाया देता है। वटवृक्ष की जडें एक है, जमीन से पानी लेता है और डाली अंतिम पत्ते तक पानी पहुंचाती हैं। हाथ के अंगूठे, अंगुलियां अलग अलग होते हुए भी आपस में सहयोगी बन कर कार्य करती है, उसी तरह व्यवस्थाओं के आधार पर अलग अलग श्वेताम्बर-दिगम्बर, मूर्ति पूजक, स्थानकवासी, तेरापंथी है लेकिन मूल में सभी जीन भगवान महावीर के शासन की शासना में साधनारत हैं।

खतरगच्छ दिवस पर इतिहास का अवलोकन करवाते हुए आचार्य श्री ने कहा कि आज से 1004 वर्ष पूर्व द्वितीय श्रावण शुक्ल 6 को महान् तपस्वी, गणाधीश भगवंत श्री जगन्नसागरजी महाराज के 52 उपवास की तपस्या में लौहावट में देहावसान के दिन को श्रीसंघ की सहमति से खतरगच्छ दिवस के रूप में मनाया जाता आ रहा है।

इस अवसरपिर्णी में भगवान आदिनाथ से लेकर भगवान महावीर ने आध्यात्मिक धर्म का प्रारुपण किया। अभी महावीर का शासन निर्बाध चल रहा है। सुधर्मा स्वामी से यह परम्परा चल रही थी। पहले उस परम्परा का नाम निर्गंथ धर्म था। निर्गंथ यानि ग्रंथि रहित, कोई गांठ नहीं। हम गांठ खोलने के लिए ही तो साधु बने हैं। अन्तर की गांठें खोलने के लिए ही संयम के मार्ग पर आये हैं। चारित्र स्वीकार करने के पिछे एक ही लक्ष्य रहता है कि हमारे अंतर में जो राग द्वेष की गांठे है, कर्मों की गांठे, मोह ममता की, जो अनादि काल से मैं गांठें बांधता आ रहा हूँ, बांध रहा हूँ, उन गांठों को खोलना है।

◆ गांठें रहित बने जीवन

विशेष पाथेय प्रदान करते हुए गुरु भगवंत ने कहा कि परमात्मा का जीवन गांठें रहित था, न बाहर और न भीतर, कोई भी तरह की गांठें नहीं थी। *हम चिन्तन करें, अनुभव करें हमारा जीवन गांठें खोलने वाला है या लगाने वाला।* हम जीवन में लोगों से सम्पर्क करते है, आपस में व्यवहार करते हैं, सगे संबंधियों के साथ व्यवहार करते है, व्यापारिक, सामाजिक व्यवहार है। जीवन में कभी बोलचाल होती है। आपस में किसी प्रकार का लेनदेन, समस्याएं, वाद विवाद सब होते है, उसके बाद आप गांठें बांधते है, लगाते है या खोलने का काम करते है। हम क्या कर रहे है? अनुभव करना। तो पायेंगे कि हमारा अधिकतम जीवन गांठें लगाने में ही पूरा हो जाता है। गांठें लगाने के जीवन हजारों है, तिर्यंच, नरक के भव में हम गांठें लगाते ही है। गांठें खोलने के लिए तो यह हमें मनुष्य भव मिला। गांठें खोलने की सुविधा केवल और केवल मनुष्य जन्म में ही है। और मनुष्य भव में वो ही गांठों को खोलता है, जिसने परमात्मा महावीर के शासन को पाया, वो ही गांठें खोलने की रीति जानता है, पद्धति जानता है, कला जानता है। कोई तो इस कला को भी नहीं जानता है और नई गांठें बांधता रहता है। एक मात्र वितराग का शासन है, जहा राग और द्वेष दोनों की गांठें हमें खोलनी है। हमारे भीतर में राग द्वेष दोनों भरे हैं। राग से ज्यादा द्वेष की गांठें गहराई से बंधी पड़ी है। हमें पहले द्वेष की गांठों को खोलना है, राग की गांठें तो स्वतः खुल जायेगी।

◆ गण अलग अलग, पर महावीर के साधु

गुरुवर ने आगे कहा कि सेना की अलग-अलग टुकड़िया होती है, पर कहलाती देश की सेना ही है। उसी तरह व्यवस्थाओं के लिए साधुओं को भी नव गणों में बांटा गया था, पर थे वे भगवान महावीर के ही साधु। तो भी वे गणधर कितने महान थे, 500-500 साधुओं को वाचना देना, उनकी शंकाओं का समाधान करना, उनकी साधना के लिए मार्ग दर्शन देना, कि तुम्हें ऐसे साधना करनी है, तुम्हें ऐसी साधना करनी है। क्योंकि हर जीव की नियति अलग अलग, हर जीव का परिणाम अलग अलग, हर जीव का क्षयोपशम अलग अलग। वेशभूषा, दिखने में साधु एक जैसा होता है लेकिन क्षयोपशम अलग अलग होता है।

निर्गंथ गण फिर धीरे धीरे नाम बदलते गये, व्यवस्थाएं बदली गई। कोटिक गण, व्रज शाखा, चन्द्र कुल, तपा विरुद्ध, खतर विरुद्ध इत्यादि। विरुद्ध यानि पदवी, सम्मान के साथ दिया गया सम्बोधन। आचार्य प्रवर ने महावीर से लेकर वर्तमान तक की पट्टावली की विस्तृत श्रृंखला का अपने ओजस्वी भाषा में उल्लेख किया।


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