मनुष्य भव में ही होता चेतना का रुपान्तरण : आचार्य जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी
चेन्नई 28.07.2023 ; श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में धर्मपरिषद् को संबोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने उत्तराध्यन सूत्र के तीसरे अध्याय की गाथा का विवेचन करते हुए कहा कि मन जब शरीर के साथ चलता है, तो शरीर मांगें करता है और जब मन शरीर से अलग हो जाता है तो वह मांग करे भी किससे? हमें धन्यवाद देना चाहिए हमारे मन को जिससे हम परमात्मा की उस अमृतमय देशना का रसपान कर रहे है, श्रवण कर रहे है।
वर्तमान में इस आर्यावर्त में जो भी साधु संत देशना दे रहे है, वह हमारी नहीं, परमात्मा की वाणी है। परमात्मा की वाणी कानों के माध्यम से हमारे हृदय में बहती है। वही श्रवण क्रिया से कला और फिर योग बन कर हमारे जीवन को रुपान्तरित करता है। मनुष्य जन्म ही ऐसा अद्भुत, विशिष्ट जन्म है जिसमें हम चेतना का परम् रुपान्तरण कर सकते है, भविष्य का रुपान्तरण कर सकते है।
◆ मनुष्य से अपार वैभव सम्पन्न होते हुए भी देवताओं से मनुष्य जन्म विशिष्ट
गुरुवर ने आगे कहा कि पुण्य उदय के भव तो और भी है, पर पुण्य के सदुपयोग तो केवल और केवल मनुष्य जन्म ही है। देवताओं के पास वैभव मनुष्यों से अपार, कई गुणा होते हुए भी वे दानवीर नहीं कहलाते, कर्ण इत्यादि मनुष्यों, राजाओं का ही नाम आता है। दूसरे देवलोक के ऊपर देवीयों के नहीं होने पर भी विजय सेठ, शालीभद्र का नाम शील के क्षेत्र में आता है। हजारों करोड़ वर्षों तक एक ही करवट में सोते हैं, खाना भी नहीं खाते फिर भी तपस्या के क्षेत्र में धन्ना अणगार, दड़ण ऋषि, गौतम स्वामी का नाम हम स्मरण करते हैं। भावना की बात आती है तो हम जिर्ण सेठ, पूरण सेठ को याद करते हैं। सबसे ज्यादा पुण्य देवलोक में है फिर भी मनुष्य जन्म को सर्वोत्तम बताया है।
◆ परमात्मा की वाणी शुद्ध आचार, सदाचार को नमस्कार कराना सिखाती
आचार्य प्रवर ने आगे कहां कि धर्म का प्रारम्भ मनुष्य जन्म से ही होता है, उस जन्म में ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, मोक्ष जाने की योग्यता प्राप्त हो जाती है। मिथ्यात्व दान, शील, तप, भाव करता हुआ भी पुण्यानुबंधी पुण्य का बंध नहीं कर सकता। सम्यक्त्वी ही धर्माचरण से पुण्यानुबंधी पुण्य का बंध कर सकता हैं। द्रव्य सामायिक भी भाव सामायिक की ओर ले जाती है। बिना श्रद्धा की वाणी भी कभी कभी हमारे जीवन को बदल सकता है। परमात्मा की वाणी चमत्कार को नहीं, शुद्ध आचार, सदाचार को नमस्कार कराना सिखाती है।
समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती
◆ मनुष्य से अपार वैभव सम्पन्न होते हुए भी देवताओं से मनुष्य जन्म विशिष्ट
गुरुवर ने आगे कहा कि पुण्य उदय के भव तो और भी है, पर पुण्य के सदुपयोग तो केवल और केवल मनुष्य जन्म ही है। देवताओं के पास वैभव मनुष्यों से अपार, कई गुणा होते हुए भी वे दानवीर नहीं कहलाते, कर्ण इत्यादि मनुष्यों, राजाओं का ही नाम आता है। दूसरे देवलोक के ऊपर देवीयों के नहीं होने पर भी विजय सेठ, शालीभद्र का नाम शील के क्षेत्र में आता है। हजारों करोड़ वर्षों तक एक ही करवट में सोते हैं, खाना भी नहीं खाते फिर भी तपस्या के क्षेत्र में धन्ना अणगार, दड़ण ऋषि, गौतम स्वामी का नाम हम स्मरण करते हैं। भावना की बात आती है तो हम जिर्ण सेठ, पूरण सेठ को याद करते हैं। सबसे ज्यादा पुण्य देवलोक में है फिर भी मनुष्य जन्म को सर्वोत्तम बताया है।
◆ परमात्मा की वाणी शुद्ध आचार, सदाचार को नमस्कार कराना सिखाती
आचार्य प्रवर ने आगे कहां कि धर्म का प्रारम्भ मनुष्य जन्म से ही होता है, उस जन्म में ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, मोक्ष जाने की योग्यता प्राप्त हो जाती है। मिथ्यात्व दान, शील, तप, भाव करता हुआ भी पुण्यानुबंधी पुण्य का बंध नहीं कर सकता। सम्यक्त्वी ही धर्माचरण से पुण्यानुबंधी पुण्य का बंध कर सकता हैं। द्रव्य सामायिक भी भाव सामायिक की ओर ले जाती है। बिना श्रद्धा की वाणी भी कभी कभी हमारे जीवन को बदल सकता है। परमात्मा की वाणी चमत्कार को नहीं, शुद्ध आचार, सदाचार को नमस्कार कराना सिखाती है।
समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती
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