भारतीय संस्कृति सद्संस्कारों की संस्कृति - मुनिश्री दीपकुमारजी
पल्लावरम/चेन्नई : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण के सुशिष्य मुनिश्री दीपकुमार ठाणा 2 के सान्निध्य में "हमारी संस्कृति - हमारे संस्कार" विषयक कार्यशाला का आयोजन तेरापंथ भवन में श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा, पल्लावरम द्वारा किया गया।
मुनिश्री दीपकुमारजी ने कहा कि 'जैसी संस्कृति, वैसे हो संस्कार'- जब तक यह सामंजस्य बना रहेगा, तब तक व्यक्ति और उसका व्यवहार दोनों की सुरक्षा होती रहेगी। भारत की संस्कृति बहुत प्राचीन संस्कृति है। भारतीय संस्कृति मूलतः सद्संस्कारों की संस्कृति है, ऋषि मुनियों की संस्कृति है। वे सारे संस्कार जो व्यक्ति और समाज को श्रेष्ठता की ओर ले जाते हैं- वह संस्कृति भारतीय संस्कृति है। आज के बदलते दौर में पाश्चिमात्य सांस्कृतिक प्रभाव से दुष्कृतों का उदय हो रहा है। हमें भौतिक एवं आडंबर ग्रस्त संस्कृति जनित संस्कारों से दूरी बनाये रखना है एवं अपनी पहचान सुरक्षित रखनी है। जैनो की भी एक सेवा, समर्पण, मैत्री, विसर्जन भावित संस्कृति रही है, जिसे 'मानव संस्कृति- विश्व संस्कृति' कहा जा सकता है। जैन संस्कृति मानव जीवन को श्रृंगार का वलय प्रदान करने की संस्कृति है। संस्कृति की सुरक्षा से ही हमारा भविष्य उज्वल बना रह सकता है एवं आदर्श भावी पीढी का निर्माण सुगम बन सकता है।
मुनिश्री ने पारिवारिक और धार्मिक संस्कारों पर बल देते हुए कहा कि परिवार से ही संस्कारों का प्रारंभ होता है। आज संस्कृति को रसातल की ओर धकेला जा रहा, जिसके परिणाम स्वरुप समाज में असभ्य परिधान पहने जा रहे हैं। खान-पान की अशुद्धि बढ़ती जा रही है। प्री-वेडिंग के कारण संस्कृति का पतन हो रहा है। इससे हमें बचकर रहना है। मुनिश्री ने विस्तार से संस्कृति और संस्कार पर मार्मिक विचार रखें।
मुनि श्री काव्यकुमारजी ने कहा कि अपने बच्चों को विद्यालयी शिक्षा के साथ सद्संस्कार जरूर दे। संस्कारों का प्रारंभ जब बच्चा गर्भ में आ जाए, तब से ही प्रारंभ कर दे। हर माता अपनी दैनिक जीवन शैली मे संस्कारमय चर्या का अनुसरण करे। मां बच्चों की पहली संस्कारशाला होती है।
अंत में ज्ञानशाला के बच्चों ने ज्ञानशाला अवदान पर अपनी भव्य प्रस्तुति दी। जिसका संचालन श्रीमती सुधा मरलेचा एवं श्रीमती शकुंतलादेवी ने किया। पल्लावरम तेरापंथ सभा अध्यक्ष श्री दिलीप भंसाली ने कुशल संचालन कर धन्यवाद ज्ञापन दिया।



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