सक्षम व्यक्ति ही कर सकता कर्जों का भुगतान : गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

★ तत्व ज्ञान को सीख कर धर्म में रत रहने की दी प्रेरणा 

चेन्नई 29.08.2023 ; श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में उत्तराध्यन सूत्र के छठे अध्ययन के विवेचन में धर्मपरिषद् को सम्बोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने कहा कि पहले अध्ययन में हमनें विनय को सुना। सुन कर आचरण में उतारने का भाव लायें। सुनना कान का विषय बना, समझना बुद्धि का विषय बना और तथ्य-पथ्य को समझ कर हृदय में उतारना, आचरण में लाना। परमात्मा का ध्यान लगा कर जो अन्तर से भाव प्रकट होते है, आनन्द का अनुभव होता है, वह विनय अन्तर में प्रकट होता है, उससे शांति का अनुभव होता है। 


फिर कितने भी परिषह आये, हम सहन करना सिख गये, सहन कर आत्मस्थ बन गए। दु:ख पाने से दुष्कर्म, पाप कर्म भी नष्ट होते है। दु:ख के कारण है दोष। श्रेष्ठ मुनि भी वही है जो पाप कर्मो का बंधन नहीं करता। केंसर की गांठ को ही नहीं, उसके मूल को खोज कर निकालना चाहिए। तीसरे अध्ययन में हमनें जाना कि यह मनुष्य जन्म दुर्लभ है, इस भव में सामायिक इत्यादि आध्यात्मिक कार्य किये जाते है, चारित्र ग्रहण किया जाता है। सम्यकदृष्टि देव तो मनुष्य जन्म के लिए तरसते है, उसे पाना चाहते है। चौथे अध्ययन में दुर्लभ मनुष्य जीवन महत्वपूर्ण है जीवन की अर्थी कब निकले, उससे पहले उसका अर्थ निकाल दें। करोड़ों रुपयें देकर भी आयुष्य को बढ़ाया नहीं जा सकता। दुनिया में रिश्वत देकर मन मानी की जा सकती है पर यमदूत को रिश्वत नहीं चलती, आयुष्य पुर्ण होते ही हमको यहां से विदा होना पड़ेगा। तीसरा अध्ययन हमें दिन की रोशनी देता है कि तुम कितने महत्वपूर्ण हो, वहीं चौथा अध्ययन रात का अंधेरा देता है, कभी भी यहां से विदा हो सकते हैं। दोनों का सामन्जस्य हमें करना है। चौथे अध्ययन ने हमें समझा दिया कि रवाना तो होना पड़ेगा, पांचवां अध्ययन हमें सिखाता है कि कैसे रवाना होना। यह समझने, सम्भलने वाला विषय है मैं कब रवाना होऊंगा, हय मालूम नहीं, परन्तु इस मनुष्य जीवन को छोड़ कर जाना तो पड़ेगा ही। कैसे रवाना होना मेरे हाथों में है, इसके लिए मुझे तैयारी करनी पड़ती है। 

◆ कर्ज चुकाने की अवस्था में रहे प्रसन्न

गुरुवर ने आगे कहा कि उत्तराध्यन का छठा अध्ययन में हमें मालूम होगा कि कैसे विदा होना है, जीवन कैसे जीना है। दु:ख में जीना है, सुख में जीना है- 'सुलक निर्गंथिय' इस छठे अध्ययन में हम जानेंगे। हमने जान लिया कि अब मेरा मरण शांति के साथ हो, परमात्म भक्ति के साथ हो, आत्मा की स्मृति के साथ हो, गुरु भगवंतों का सत्संग हो, उनकी वाणी सुनने को मिले। हृदय में नवकार मंत्र हो, तब में यहां से विदा हूँ। जिन्दगी भर जो संसार के कामों में जीता है, क्रोध, मान, माया, लोभ में रत रहता है। उसे अंतिम समय में भी रुपये ही याद आयेंगे, नवकार मंत्र नहीं। संसार में जीते हुए भी कार्य व्यवहार में करों, निश्चय में आत्मा में रमण करें। जिसमें अन्तर में तत्व ज्ञान नहीं है, अज्ञानता से जीता है। संसार में मुढ़ होकर दु:ख प्राप्त करता है। संसार में परिभम्रण करता है। तत्व ज्ञान- वस्तु पदार्थ का यथार्थ बोध करना। जो जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार करना तत्व ज्ञान का पहला लक्षण है। कभी कभी हम देखते हैं कि अनेकों अधार्मिक कार्य करता हुआ भी आगे बढ़ता जाता है और वहीं धार्मिक कार्य करने वालों को दु:ख, बाधाएं झेलनी पड़ती है। इन्कमटैक्स की रेड हमेशा अमीर के यहा ही पड़ती है, उसी तरह दु ख भी उन्हीं को आते है। कर्मों की रेड भी वहीं पड़ती है जहां सम्पन्नता है, पैसा है, पुण्यता है, परन्तु उस समय हृदय में यहीं विचार करना चाहिए कि यह धर्म का परिणाम नहीं अपितु हम जो धर्म करते है, उससे उन दुखों को भी सहन करने की क्षमता देता है। परमात्मा महावीर जब तक संसार में थे, एक भी दु:ख नहीं मिला। ज्योहीं संयम लिया उपद्रव आयें- जैसे देना वाला होगा, उसके पास होंगे, तभी हम मांगेंगे, उसी प्रकार कर्मो का कर्जा हम पर है, कर्ज चुकाने की अवस्था में ही हम प्रसन्न होते हैं। उसी प्रकार धर्म के क्षेत्र में व्यक्ति प्रविष्ट करता है, तभी वह कर्ज चुकाने में सक्षम बन जाता है। उसी तरह भगवान महावीर भी संयम ग्रहण करते ही सक्षम बन गए और परिषहों का सम भाव से मुकाबला किया, सहन किये। 

◆ चेतना से सक्षम बन महावीर ने कष्टों को भी किया सहन

गच्छाधिपति ने फरमाया कि भगवान महावीर ने दीक्षा लेते ही तीन संकल्प भी किये- मैं कभी किसी को दु:ख नहीं दुंगा, दु:खों को समभाव से सहन करूंगा एवं मैं कभी और दु:ख प्राप्त करने के कार्य नहीं करुंगा। पूर्व भवों में हमने ही दु:ख दिया है, उस कर्ज को अब मुझे ही भुगतान करना पड़ेगा। अपनी आत्मा में, अपनी चेतना में सक्षम बन भगवान महावीर ने हर तरह के कष्टों को भी सहन कर दिया। इसलिए मन में यही चिन्तन रखे कि मैं धर्म कर रहा हूँ, अब मैं सक्षम हूँ, कितनी भी रेड पड़े मैं सहन कर सकता हूँ, भुगतान कर सकता हूँ। मुझे कोई चिन्ता नहीं, हृदय में प्रसन्नता है क्योंकि में दु:ख के कारणों को मिटा सकता हूँ। 

◆ सुख में कारण बनना और दु:ख में पार्टनर बनना

विशेष प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए गुरु भगवंत ने कहा कि आप सुख में सहगामी बने या नहीं, जरूरी नहीं, लेकिन दु:ख में सहयोगी जरूर बनना। सुख में कारण बनना और दु:ख में पार्टनर बनना। हमारे ड्राइवर अपनी इच्छाओं को नहीं गुरु भगवंतों को सहारा बनाएं। महाभारत में हम देखते है कि कृष्ण और अर्जुन में भक्त और भगवान का सम्बंध था। युद्ध के दिनों में नियमित कृष्ण रथ से पहले उतरते थे लेकिन युद्ध की पूर्णाता के बाद अर्जुन को पहले उतरने का कहा, वह निचे उतरे, बाद में श्री कृष्ण उतरे और जैसे ही वें नीचे उतरे रथ स्वाह हो गया। उसी तरह हम भी हमारी गाड़ी का ड्राइवर परमात्मा को बनायें। तत्व प्रकट होने पर ही हमें मालूम पड़ेगा कि मैं कौन हूँ, कहां हूँ, मैं क्या कर रहा हूँ। तभी हमें समझ में आयेगा कि पाप, पुण्य, धर्म क्या है, दुखों से कैसे मुक्त हो सकते है। हर समय जब मालूम रहता है, याद रहता है कि मैं श्रावक हूँ- तब मैं पापों से दूर रह सकता हूँ।

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