आत्म समाधि ही आत्म आनन्द है, आत्म ऊर्जा है - गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

★ हठाग्रह, कदाग्रह, पूर्वाग्रह से दूर रहने की दी प्रेरणा

चेन्नई 03.08.2023 : श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी, चेन्नई में शासनोत्कर्ष वर्षावास में गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म.सा ने उत्तराध्यन सूत्र के चौथे अध्याय के विवेचन में धर्म परिषद् को सम्बोधित करते हुए कहा कि ऐसा जीवन जो टुटने के बाद सधता नहीं है, जीवन की डोर ऐसी है जिसमें गांठ नहीं लगती, जिसमें कोई संधि नहीं होती। एक बार टुटने के बाद किसी भी कीमत पर जोड़ा नहीं जा सकता। ऐसे दुर्लभ, महत्वपूर्ण, अवसरों से भरा, विकल्पों से परिपूर्ण जीवन का उपयोग करना है। यह हमारा मनुष्य जीवन चौराहे के समान है, जहां से हम दशों दिशाओं में से कही भी जा सकते है। बाकी जन्म तो संकड़ी गली के समान ही होते है, जहां से आगे या पिछे जाया जा सकता है।

गुरुवर ने प्रतिबोध देते हुए कहा कि इस जीवन में जो आगे जाने के लिए जांच करके, अच्छी तरह समझ करके निर्णय कर लेता है, कि मुझे कहां जाना उचित होगा, कहा जाना सुखकारी, हितकारी, लाभकारी, कल्याणकारी होगा। हमारे पास थोड़ा सा समय है, इस थोड़े से समय में बड़ा और लाभकारी व्यापार करना है। इतना छोटा सा जीवन कि आने वाला कल, आने वाले पल का भी भरोसा नहीं है। आने वाला सूर्योदय या सूर्यास्त होगा या नहीं, कोई भी केवलज्ञानी के अलावा बता नहीं सकता। अतः मुझे सही निर्णय लेना है। एक पल का उचित निर्णय, अच्छा निर्णय, शुभ निर्णय मुझे करोड़ों वर्षों का आनन्द दे सकता है। वही गलत निर्णय डुबो भी सकता है, नरकगामी बना सकता है। 

◆ अध्यात्म के मार्ग के लिए पुरुषार्थ की जरूरत होती है

आचार्य प्रवर ने कहा कि जो बित गया उसके लिए हम पश्चाताप कर सकते है, लेकिन उसके लिए रोना नहीं चाहिए। बस जो शेष समय है, उसको में सार्थक बनाऊं। ऐसा कोई कार्य नहीं करे जिससे पश्चाताप करना पड़े। पश्चाताप यानि भविष्य में दुबारा मुझे पश्चाताप करना न पड़े। वो भाव मेरे अन्तर में रहे कि अब में जाग चुका हूँ, समझ चुका हूँ, मैं स्वयं शुद्ध, पवित्र, परमात्ममय बन जाऊ, प्रकाशपुंज बन जाऊं। देव या मनुष्य लोक के सुख भी नहीं चाहता हूँ, मात्र परम् समाधि को प्राप्त करना चाहता हूँ। आत्म समाधि चाहता हूँ। आत्म समाधि ही आत्म आनन्द है, आत्म ऊर्जा है। संसारी संसाधनों की प्राप्ति में पुण्य की जरुरत होती है, अकेला पुरुषार्थ काम नहीं आता। पर अध्यात्म के मार्ग के लिए पुरुषार्थ की जरूरत होती है। पुण्य की 42 प्रकृति में से एक भी प्रकृति नहीं है, जिससे दीक्षा आ सके।

◆ मुझ में साहस है, समता है, मैं शक्ति सम्पन्न हूँ

गुरु प्रवर ने कहा कि दु:ख कभी आता नहीं है लेकिन हम चिन्तन से, प्रसन्नता से उसे स्वीकार कर देते है। शरीर का दु:ख कभी दु:ख नहीं है, अपितु हम मन के दु:खों से दुखित है। मुनि के केश लुंचन के समय शरीर को दु:ख होता है, लेकिन वह आत्मा में सुख का अनुभव करता है। मुझ में साहस है, समता है, मैं शक्ति सम्पन्न हूँ अतः मुझे उन निमित्तों से सावधान रहना है। गलत विचार, क्रोध, मान, माया, लोभ रुपी निमित्त पग पग पर मुझे डुबा सकते है, उसे रोकने वाला मन स्लो हो जाता है। वो कार्य विकृत है, अतः हमें रोकने वाले मन को मजबूत करना चाहिए। मन में अठाई तप का विचार आता है, लेकिन पुनः हमारे मन का दूसरा कोना रोकता है। अतः हमें पुरुषार्थ के साथ, दृढ़ता से मन को मजबूत बनाना होगा।

◆ बांसुरी की तरह मन को रखे खाली

आचार्य श्री ने कहा कि मन के यह तीन हठाग्रह, कदाग्रह, पुर्वाग्रह बहुत खतरनाक है। हठाग्रह किसी वस्तु, पदार्थ के बारे में आग्रह। कदाग्रह- विचारों का आग्रह और पुर्वाग्रह किसी व्यक्ति के बारे में आग्रह का होना। ये तीनों मन के खेल है। चेतना कागज है और मन के ये आग्रह हमें मलिन बनाता है, वह पन्ना काला हो जाता है। अतः हमें बांसुरी की तरह मन को खाली रखना होगा।

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