प्रति क्षण उपकारी, उपकारीयों का रहे स्मरण : गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी 

★ इगो से हम स्वजनों के प्रेम से दूर हो जाते है

★ अगली गति को सुधारने के लिए इस गति को धर्ममय बनाने की बताई निर्णायक गति 

★ गच्छाधिपति का हुआ केश लूंचन

चेन्नई 09.08.2023 ; श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में धर्मपरिषद् को संबोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने उत्तराध्यन सूत्र के चौथे अध्याय की गाथा का विवेचन करते कहा कि कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो अगली गति में नरक या तिर्यंच में जाना चाहे। फिर भी जाता क्यों है? यह प्रश्न हम दूसरे जीवों के लिए करे उससे पूर्व स्वयं के लिए करे। मुझे कहां जाना है, मैं क्या ग्रहण करु, पुरुषार्थ करुं, कैसे काम करु, जिससे मुझे नरक अथवा तिर्यंच में न जाना पड़े। दुबारा मनुष्य गति भी मिले तो सम्यक्त्व के साथ मिले। परमात्मा की देशना, शासन, धर्म के साथ मिले। देव गति भी मिले तो सम्यक्त्व के साथ मिले। इस जन्म में इस जन्म के साथ ही अगले जन्म के लिए भी पुरुषार्थ करें। इस भव में कुछ समय के लिए किया गया चिन्तन हमारे आने वाले लाखों करोड़ों वर्षों की चिन्ता को मिटा सकता है। निर्णय इस जन्म में करना है, निर्णायक घड़ी हैं। 

◆ पाप कार्यों से बचने का करें प्रयास

गुरुवर ने कहा कि भगवान महावीर ने कहा था कि हमें प्रमाद के साथ नहीं जीना चाहिए। मैं कौन हूँ, मेरा स्वरूप क्या है। संसारिक या आध्यात्मिक, कोई भी कार्य करते समय, प्रति पल स्मरण रहना चाहिए, यह भाव रहना चाहिए कि मैं आत्मा हूँ और मुझे परमात्म पद पाना है। वर्तमान का नाम तो थोड़े समय का ही है और जैसे ही अपने आप को आत्मा होने का अहसास होता है में पाप कार्यों से बचने का प्रयास करता हूँ, धर्म में परिणत हो जाता हूँ। मुझे दु:ख के कारण नहीं, अपितु पाप से डर इसलिए है कि मुझे अधर्म मिलता है। दु:ख और अधर्म में अन्तर है। हमें दु:ख से घबराना नहीं है और सुख में इतराना नहीं।

◆ समता, प्रसन्नता के साथ होनी चाहिए सहनशीलता

आचार्य प्रवर ने कहा कि आपको कोई भी पदार्थ मिलता है या आपकी बात कोई भी मानता है, सुनता है तो समझना चाहिए कि आपका पुण्य प्रबल है। लेकिन कम मिले या कोई कम सुने, माने तो गुस्सा नहीं आना चाहिए, क्रोध नहीं करना चाहिए, इगो को आड़े नहीं आना चाहिए। जीवन में समता के साथ, प्रसन्नता के साथ की सहनशीलता होनी चाहिए और यही भाव रहना चाहिए कि मेरी पुण्यवत्ता कम है। इसलिए हमारी साधना से इगो, अहंकार को दूर करना है। इगो से हम स्वजनों के प्रेम से दूर हो जाते है। रावण को मंदोदरी के समझाने पर भी अपने इगो के कारण वह सीता को नहीं छोड़ता। भीतर में राम प्रकट होने पर रावण रुपी इगो, अहंकार भाग जाता है। अपने संस्कारों, शील, सस्कृति की रक्षा के लिए सीता अडिग रही। रावण मान भी गया था, जान भी गया था कि सीता मेरी नहीं होगी, लेकिन अपने इगो, अहंकार के कारण युद्ध को भी स्वीकार कर लिया। 

◆ इगो के जाने से स्वगुणों का होता प्रवेश

गुरु भगवंत ने कहा कि हृदय में पीड़ा होनी चाहिए, दुसरों का नाम मिटा कर अपना नाम करना चाहने की चाह नहीं। हमें वह पुण्य चाहिए, जिससे पुनः परमात्मा का शासन मिले, जीन वाणी सुनने को मिले। इगो का द्वार जैसे ही हम बन्द कर देते है, स्वगुणों का जागरण हो जाता है, भीतर प्रवेश कर जाते है। इगो को मिटाने के लिए दो सूत्रों को अपनाना चाहिए- उपकार स्मरण और गुण दर्शन।

◆ हर समय उपकारी, उपकारीयों का रहे स्मरण

आचार्य प्रवर ने कहा कि हमें हर समय उपकारों, उपकारी का स्मरण रहना चाहिए, तो निश्चित रूप से चाहे धीरे धीरे ही सही इगो समाप्त होगा। हम सामायिक, प्रतिक्रमण करते है, तो पांच मिनट अपने उपकारों का स्मरण करना चाहिए। हो सकता है सामने वाले ने अपने कर्तव्य का पालन किया हो, किसी ने उपकार के साथ व्यापार किया हो, लेकिन हमें जरूर उनका स्मरण करना चाहिए। अपने माता-पिता, गुरुजनों, सभी उपकारी का स्मरण होना चाहिए। हमारे जीवन में सबसे बड़े उपकारी है- एकेन्द्रिय जीव। जिनके कारण हम बोल पा रहे है, चल पा रहे हैं, खा पाते, जी पाते, सो पाते है। हमें मकान पृथ्वीकाय ने दिया, प्यास अपकाय ने मिटाई, तेजकाय के जीवों से भोजन पका पा रहे है, वायुकाय से श्वास ले पा रहे है, वनस्पतिकाय जीवों से हमें खाना मिल रहा है। अतः हमें प्रतिदिन कम से कम पांच मिनट उन उपकारीयों का स्मरण करना चाहिए। उनका स्मरण हमें नम्र बनाता है। अहंकारी की भाषा होती है मुझे किसी की जरूरत नहीं और मेरे बिना कुछ होता नहीं। जैसे ही हम उपकारीयों का स्मरण करते है, हमारा इगो शांत हो जाता है और विनम्रता के भाव, विचार उत्पन्न हो जाते है। हमें गुणवान बनना है और गुण दर्शनों को देखना चाहिए। अवगुणों, अवगुण दर्शनों को नहीं देखना चाहिए।

◆ गच्छाधिपति का हुआ केश लूंचन

 प्रवचन के पश्चात गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी का केश लूंचन हुआ। आचार्य भगवंत ने चतुर्विद संघ के समक्ष केश लोचन करवाया। केश लोचन एक तप के रूप में जैन साधु साध्वी द्वारा सहज स्वीकार किया जाता है और सिर, दाढ़ी एवम मूछों के केशों का लोचन किया जाता है। श्रावक समाज ने अपने नयनों से इस दृश्य को देख अपने आप को सौभाग्यशाली महसुस किया।



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