अपनी चेतना से प्रेम ही परमात्मा से प्रेम और होगा आत्मकल्याण

★ जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी ने माता पिता के प्रति कृतज्ञ रहने की दी प्रेरणा

★ तपस्वियों के अनुमोदनार्थ निकाला वरघोड़ा

★ आचार्य पट्टावली का किया विशद् विवेचन 

चेन्नई 19.08.2023 ; श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में पर्यूषण महापर्व के सातवें दिन धर्मपरिषद् को सम्बोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने कहा कि जीवन को उन्नत बनाने के लिए जरूरी है दिशा परिवर्तन। चाहे तीर्थंकर हो या सामान्य व्यक्ति जब जीवन में दिशा परिवर्तन कर लेता है तो वह सिद्धत्व को प्राप्त कर सकता है और उसके लिए निमित्त है- प्रेम। सभी जीवों को अपने समान समझना। जीवों से प्रेम होगा तभी अहिंसा, दया का पालन किया जा सकता है। हमें भी परमात्मा बनना है तो प्रेम की दिशा को बदलना होगा। हमने अभी तक प्रेम पुदगलों, पदार्थों, व्यक्तियों से किया है।


 जबकि हमें प्रेम करना है स्वयं अपनी चेतना से और अपनी चेतना सम समस्त जीवों से। दूसरों की बनिस्पत खुद से प्रेम करने से हमारी दृष्टि, हमारा आचरण, भाव, विचार सब बदल जाते है। हमारे शरीर से प्रेम ठीक है पर अपनी आत्मा से प्रेम जरूरी है। शरीर तो छुटने वाला है, प्रतिक्षण परिवर्तन शील है। जिसके कारण हम चलते फिरते है, खाते पिते है, परिवार है, सम्पदा है- वह है हमारी चेतना। इनसे प्रेम करने से हमारा खानपान, रहनसहन, जीवन शैली, परिणाम, भाव भी बदल जायेंगे। अपने आप से प्रेम ही करना ही परमात्मा से प्रेम है। अपनी आत्मा से प्रेम है और यह भाव हर पल, प्रतिक्षण हमारे मन, आचरण में रहे। 

◆ माता पिता के प्रति रहे कृतज्ञता के भाव

आचार्य प्रवर ने संदेश देते हुए कहा कि हमने भगवान आदिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर का जीवन चारित्र सुना। सभी में हमने सुना, एकरुपता थी - माँ के प्रति कृतज्ञता के भाव। उनका अपनी माँ के प्रति मोह नहीं था, मोह में तो सौदाबाजी होती है। कृतज्ञता में उपकार, परोपकार के भाव रहते है। सुख और हीत में अन्तर है। सुख कुछ समय के लिए होता है और हीत कल्याणकारी होता है। परमात्मा ने भी माता के उपकार के लिए माँ को अनदेखा किया इसलिए कि उसे देखने पर, बोलाने पर उन्हें कुछेक समय के लिए सुख का अनुभव होगा लेकिन आदिनाथ भगवान ने मरुदेवी माता को अनदेखा किया। जिससे माता के भाव बदले और वे घाति कर्मों का नाश करके मोक्षमार्ग को प्राप्त कर लिया। माता से वात्सल्य मिलता है और पिता से अनुशासन। 

◆ आचार्य पट्टावली का किया विशद् विवेचन

गुरुवर ने आचार्य पट्टावली का विशद् विवेचन करते हुए कहा कि चरणों की पूजा करना आसान है, लेकिन चरण चिन्हों पर चलना महत्वपूर्ण है। साधु साध्वीयों के दर्शन करते समय भी हमारे मन में यही भाव रहना चाहिए कि हम भी चारित्र को स्वीकार करें। आत्म चिन्तन भीतर में उतरना चाहिए। एक सुश्रावक स्वयं के साथ साधु को भी दिशानिर्देश दे सकता है। आत्मस्थत बनाने में सहभागी बन सकते है। इसलिए आगमवाणी में श्रावक को श्रमणोपासक कहा जाता है। संयम, चारित्र स्वीकार करना और उनकी अनुमोदना से अनन्तानन्त कर्मों का नाश हो सकता है। जहां शिष्य गुरु की सेवा आराधना करता है तो वहीं प्रतिकूल परिस्थितियों में गुरु भी शिष्यों की सेवा करते हैं।

◆ तपस्वियों के अनुमोदनार्थ निकाला वरघोड़ा

गच्छाधिपति आचार्य जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी म सा की निश्रा में चल रहे सामुहिक सिद्धितप, मासक्षमण, अठ्ठाई एवं उससे ऊपर तप के तपस्वियों के अनुमोदनार्थ प्रातःकाल गुरुश्री शांति कॉलेज से गाजेबाजे के साथ लगभग 250 तपस्वियों का वरघोड़ा निकाला गया। इसमें तपस्वियों के साथ हजारों श्रद्धालु जन सम्मिलित हुए। जय घोषों से मार्ग को गुंजायमान करते हुए सभी तपस्वी के गौतम किरण परिसर पधारने पर आचार्य प्रवर ने प्रत्याख्यान करवाते हुए, आध्यात्मिक शुभेच्छा देते हुए, मंगलमंत्रोच्चार से आशीर्वाद प्रदान किया। रविवार को संवत्सरी महापर्व पर गुरुवर श्रीमुख से बारसा सूत्र की वांचना होगी।

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