प्रेम दाता ही बनता प्रेम पाने का अधिकारी : जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी


चेन्नई 10.07.2023 : श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में धर्मपरिषद् को संबोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने उत्तराध्यन सूत्र के प्रथम अध्ययन के पहली गाथा में विनय का विश्लेषण करते हुए कहा कि दो प्रकार के साधु कहलाते है, जो आज्ञा का पालन करते है, वे विनित कहलाते है और दूसरे जो न तो आज्ञा का पालन करते है, अपितु उसके प्रतिकूल कार्य करते है, स्वयं स्वतंत्र रहना चाहते है, उसे अविनित कहते है। प्रश्न हो सकता है कि जब आत्मोन्नति का मूल ही विनय है। हम बचपन से ही घर हो या स्कूल, सब जगह से सुनते आ रहे है कि विनयवान बनना चाहिए। फिर ह्रदय में विनय भाव पैदा क्यों नहीं होता?
 जीवन में बिना विनय के प्रकट हुए शांति, समाधि को नहीं प्राप्त कर सकते। चार तत्व में सबका मंतव्य अलग अलग होता है- 1. जहर न लेना चाहते है और न देना चाहते। 2. राय लेना नहीं चाहते, पर देना चाहते है। 3. पैसा लेना चाहते पर देना नहीं चाहते हैं एवं 4. प्रेम देना भी चाहते है और लेना भी।
★ संसार के समस्त प्राणियों के प्रति हो प्रेम की भावना
आचार्य प्रवर ने आगे कहा कि प्रति पल मन की प्रसन्नता के लिए विनय भाव जरूरी है और विनय भाव प्रकट करने के लिए वह तत्व जरूरी है, जिसे हम लेना भी चाहते हैं और देना भी चाहते है, वह तत्व है प्रेम। निश्चल प्रेम- जिसमें राग नहीं, द्वेष नहीं, जिसमें मोह नहीं, आसक्ति नहीं। प्रेम का रुप अलग अलग हो सकता है। लेकिन छोटा हो या बड़ा, हम सभी प्रेम पाना चाहते हैं। प्रेम दाता ही, प्रेम पाने का बनता अधिकारी है। संसार के समस्त प्राणियों के प्रति प्रेम की भावना होनी चाहिये।

★ विनयवान के लिए जरुरी है समर्पण भाव
आचार्य प्रवर ने कहा कि विनयवान के लिए जरूरी है समर्पण भाव का होना। परमात्मा के प्रति, गुरु के प्रति सर्वात्मना समर्पित हो जाना। विनय का लक्षण है जब कोई उसकी गलती बताता है, तो उसका ह्रदय प्रमुदित हो जाता है। शिष्य अनगढ़ होता है, गुरु उसे गढ़ता है। जैसे प्रतिमा बनने के लिए पत्थर को हथोड़ी की चोट सहनी पड़ती है, उसी तरह गुरु शिष्य को गढ़ते समय जहां प्रेम, वात्सल्य भी करते है, तो गलती पर सजा भी देते है।

★ गलती को कभी भी प्रोत्साहित नहीं करें
विशेष पाथेय देते हुए आचार्य भगवंत ने कहा कि गलती को कभी भी प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए, नहीं तो आगे परिवार को ही नुकसान भुगतना पड़ता है। जैसे दीयाचलाई की एक तीली जलती है और दूसरी तीलियों को दूर कर दिया जाये तो बाकी की बच जाती है। उसी तरह गुरु की आज्ञा ही नहीं प्रतिकूल शब्दों, व्यवहार में भी विनयवान रहता है, वह सदैव आगे बढ़ता है। गुरुदेव ने अपने बचपन की बात बताते हुए कहा कि मेरी गलती पर गुरुवर ने डांटा, उपालम्भ दिया, तभी मैं सुधर सका। आज अपने आप में कुछ पा सका।
 
★ कल्पना और भावना का समझे भेद
गुरुवर ने कहा कि साधना से सदगति मिल सकती है। जबकि मोक्ष के लिए साधना के साथ भावना भी जरूरी है। संसार के क्षेत्र में किसी भी वस्तु को प्राप्त करना कल्पना है और अध्यात्म के क्षेत्र में प्राप्त करना भावना है। जो मन से होती है वह कल्पना और जो हृदय से उत्पन्न होती है वह भावना। हमें निमित्त कल्पना और भावना दोनों के मिलते है। कल्पना नरक तक ले जा सकती है, वही भावना परमात्म पद तक पहुंचा सकता है। तंदुल मत्च्छ भावधारा के आधार पर सातवी नरक तक पहुंच जाता है, वहीं जीर्ण सेठ ने उत्कृष्ट भावों से भगवान को आहार व्रत निपजाने की भावना की, एक सौ बीस दिन तक नियमित विनती की। पर तपस्या की पूर्ति पर भगवान का पारणा पूर्ण सेठ के वहां हुआ। परन्तु जीर्ण सेठ के मन में यह भावना आई कि सम्भवतः मेरे पुण्य कमजोर पड़ गए होगे। आंखों में आंसू आ गए और शुद्ध भाव धारा से उन्होंने बारहवें देव लोक का आयुष्य बंध किया। 
 
★ उल्लास भाव से साधु को निपजाये आहार
आचार्य प्रवर ने कहा कि धर्म की गहराई में उतरने के लिए दीर्घकालानीता, निरन्तरता और बहुमानता (सम्मान, उल्लास) भाव होने चाहिए। आहार वहराते समय कभी भी यह भावना नहीं होनी चाहिए कि यह मेरे समुदाय के साधु, गुरु है, जबकि उल्लास भाव से बहराना चाहिए। रोज सामायिक करते करते एक समय ऐसा भी आ सकता है, जब उल्लास के साथ समता में उतर जाते है। हमारे ह्रदय में आंतरिक उत्सुकता रहनी चाहिए। बाहरी वातावरण में तटस्थ भाव से रहना चाहिए। भावना विनय की पात्रता बनाती हैं। भावना के आधार पर परमात्मा की आज्ञा मानना, स्वीकार करना, भक्ति करना, विनय है। देव, गुरु, परमात्मा की वाणी को स्वीकार करना सम्यक् दर्शन है।

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