चित्त मलीन न हो : जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी
★ कषायों से दूर होने की दी प्रेरणा
चेन्नई 25.07.2023 : श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में धर्मपरिषद् को संबोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने उत्तराध्यन सूत्र के तीसरे अध्याय की गाथा का विवेचन करते हुए कहा कि मनुष्य भव को सुलभ बनाने के चार सूत्र है- दान रुचि, साधर्मिक भक्ति, अल्पकषाय और मध्यम गुण।
दान रुचि यानि हमारे अन्दर में देने का भाव, जो है वो देने का भाव। कोई भी व्यक्ति खाली नहीं है, हो सकता है उसके पास में पैसे नहीं है, पर उसके पास में जीवन है, समय है, आँखें है, हाथ इत्यादि अवयव है, बुद्धि है, विवेक है। जो है मेरे पास उसे उन्हें अर्पण करने का भाव रखूं, जिन्हें इसकी जरूरत है। उससे मुझे आनन्द की प्राप्ति होती है।
साधर्मिक व्यक्ति के प्रति दया करुणा के भाव रखना चाहिए। उसे देख कर मुस्कुराहट का भाव, उदास व्यक्ति को हंसी देना। अल्पकषाय- कषायों का अल्पीकरण करना चाहिए। उत्तम गुण, मध्यम गुण और अदम गुण। सरलता, सहजता, दया आदि में उत्कृष्टता आना उत्तम गुण। निमित्त मिलने पर गुणों का उत्पन्न होना मध्यम गुण है।
गुरुवर ने फरमाया कि जैसे कोई भी बिजनेस हो हम प्रोफिट कमाना चाहते है। उसी तरह धार्मिक क्षेत्र में सामायिक, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय इत्यादि कोई भी धार्मिक क्रिया का परिणाम यह होना चाहिए कि अपने चित्त को स्फटिक जैसा निर्मल बनाना। हमारे मन को मैला करने वाला तत्व है हमारे अन्दर का कषाय। शीघ्र कषाय, तीव्र कषाय और दीर्घ कषाय। सामने वाले की बिना परिस्थिति को देखे हुए तुरंत जवाब देना शीघ्र कषाय है। छोटी थप्पड़ पर जबरदस्त मुक्के से जवाब देना तीव्र कषाय। ये कषाय मन को मलिन करते है।
◆ तुरन्त प्रतिक्रिया न दे
विशेष सूत्र के साथ प्रतिबोध देते हुए गुरु भगवंत ने कहा कि कुछ समय, थोडी देर रुक कर जवाब देने से परिस्थितियां बदल सकती है और हम पाप कर्मों के बंधन से बच सकते है। जैसे दुकान पर लिखा रहता है कि आज नकद कल उधार उसी तरह हम भी हमारे जीवन में इन सूत्रों को अपनायें- आज क्षमा कल क्रोध,
आज सरलता कल माया,
आज विनय कल मान,
आज संतोष कल लोभ
कषायों को कल पर डाल दो। चित्त की चंचलता तो फिर भी चलेगी, लेकिन मलीन नहीं होने देना चाहिए, अन्दर के कषायों से मलीनता पैदा होती है और उससे घोर कर्मों का बन्धन हो सकता है। पंच तिथियों में आयुष्य का बंधन हो सकता है, इसलिए उस समय हरी सब्जी नहीं खाते हैं क्योंकि उसके प्रति हमारा राग भाव होता है, इसलिए उसे नहीं खाना चाहते है। राग भाव हरी सब्जी इत्यादि ही नहीं अपितु पैसों के प्रति भी राग भाव नहीं होना चाहिए।
चित्त की मलीनता नरक और तिर्यंच भवों का बंधन करवा सकती हैं। हम किसी भी क्रिया या कार्य की तुरंत प्रतिक्रिया नहीं करें। हम बंधें हुए कषायों को भी निकलना चाहिए। दीर्घ कषाय भीतर में पनपने दे। हमें अतिक्रमण का प्रायश्चित जरूर करना चाहिए। उसी दिन नहीं तो, संवत्सरी तक तो प्रायश्चित जरूर करना चाहिए। नहीं तो सम्यकत्व भी चली जा सकती है। मिथ्यात्व आ सकता हैं और पुनः सम्यकत्व आना बहुत ही मुश्किल है।
कचरे को जैसे हम अपने घर में नहीं रख सकते उसी तरह दीर्घ कषाय से बचने के लिए विशेष प्रेरणा देते हुए आचार्य भगवंत ने कहा कि हमारा किसी के साथ कोई भी अनबन हुई है, उसे दूसरों के सामने नहीं बताना चाहिए एवं जिस व्यक्ति के साथ हमारी अनबन थी और वो स्वर्गस्थ सीधा गये, उसके प्रति राग द्वेष के भाव नहीं रखने चाहिए।
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