सकारात्मक चिन्तन से प्राप्त होती सफलता - प्रो शाह

◆ अंहकार और अज्ञान से दूर रहने की दी प्रेरणा

★ ‘आधुनिक युग में सम्यक् दर्शन का महत्व’ पर व्याख्यान आयोजित

लाडनूं 14.03.2023 ; जैन विश्वभारती संस्थान के जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म तथा दर्शन विभाग के अन्तर्गत महादेवलाल सरावगी अनेकान्त शोधपीठ के तत्वावधान में आचार्य तुलसी श्रुतसंवर्द्धिनी व्याख्यानमाला में एक दिवसीय व्याख्यान का आयोजन किया गया। एलडी इंस्टीट्यूट ऑफ इंडोलोजी अहमदाबाद के पूर्व निदेशक एवं श्रुत रत्नाकर के संस्थापक व पायोनियर ट्रस्टी प्रो. जितेन्द्र बी शाह ने इस वार्षिक व्याख्यानमाला में ‘आधुनिक युग में सम्यक् दर्शन का महत्व’ विषय पर मंगलवार को अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। 

जैविभा विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बच्छराज दूगड़ की अध्यक्षता में आचार्य महाश्रमण ऑडिटोरियम में आयोजित इस व्याख्यान में मुख्य वक्ता प्रो. शाह ने कहा कि सम्यक् दर्शन बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है। 2300 साल पहले आचार्य आर्यभद्रबाहु ने ‘उवसग्गहर स्तोत्र’ की रचना की थी, जो बहुत प्रसिद्ध है। उसमें चिंतामणि रत्न और कल्पवृक्ष प्राप्त कर लेने से भी अधिक महत्वपूर्ण सम्यग्दर्शन को बताया गया है। हमारे देखने की सही दृष्टि महत्व रखती है। एटीट्यूड पोजेटिव होने पर सफलता और नेगेटिव होने पर विफलता का सामना करना पड़ता है। केवल चर्मचक्षु से देखने को गलत और अन्तर्चक्षु को जरूरी बताते हुए प्रो. शाह ने बताया कि हर वस्तु की महिमा अन्तर्चक्षु से देखने से ही दिखाई देती है। सम्यक का अर्थ है सच्चा। हमारे देखने का भाव इसमें निहित होता है। हमें देखना इतना स्पष्ट नहीं है, क्योंकि हम विचारों से गुजरा हुआ देखते हैं, वह विशुद्ध नहीं होता।

प्रो. शाह ने सम्यक् दर्शन को आवश्यक बताते हुए कहा कि व्यक्ति का अहंकार और अज्ञान ही उसे सम्यक दर्शन से दूर करता है, तब तक हम मिथ्यात्व में पड़े रहते हैं। हमारे मन पर गंदे और अज्ञानता पूर्ण विचारों का आवरण रहने से हम सत्य का दर्शन नहीं कर पाते। दुनिया में सबसे बड़ा दुःख अज्ञानता है। ज्ञान के आने पर समस्त कष्ट नष्ट हो जाते हैं। सही को गलत मानना और गलत को सही मानना ही मिथ्या है। मिथ्या ज्ञान को ज्ञान मानना भी अज्ञान ही है। विपरीत ज्ञान भी अज्ञान है और वह जीवन की सफलता का सबसे बड़ा बाधक है।

अच्छे को अच्छा समझने से बदलती है जीवन की दिशा

प्रो. जितेन्द्र बी. शाह ने विशेष रूप से कहा कि अहंकार और अज्ञान के दूर होने से ही सम्यक दर्शन मिल पाता है। उन्होंने इसके लिए उचित काम करने से जीवन से सिद्धि मिलना, अशुद्ध कर्म को नहीं करने का भाव जागृत करना, बुरे को बुरा और अच्छे को अच्छा समझना, जिसे संसार गलत समझे उस बात को आदर का स्थान नहीं देना, को मान लिया जाए तो जीवन की दिशा बदल जाती है। अच्छा कर्म करने से अच्छा परिणाम आएगा और आनन्द प्राप्त होगा। हमेशा अच्छे कर्म करने का प्रयास करते रहना चाहिए। संकल्प लें कि अब कोई बुरा काम नहीं करूंगा। आपके भीतर राग-द्वेष की गांठें टूटनी शुरू हो जाएगी।

अध्यक्षीय उद्बोधन में कुलपति के विशेषाधिकारी प्रो. नलिन के शास्त्री ने व्याख्यान की सराहना करते हुए कहा कि सम्यक दर्शन प्राप्त होने पर भ्रम दूर हो जाते हैं और हम रचनात्मक बन जाते हैं। व्याख्यानमाला के शुरुआत में जैन विद्या तथा तुलनात्मक धर्म व दर्शन विभाग की विभागाध्यक्ष प्रो. समणी ऋजुप्रज्ञा ने स्वागत वक्तव्य के साथ विषय पर प्रस्तावना प्रस्तुत की और आचार्य तुलसी के जीवन पर प्रकाश डाला। दूरस्थ शिक्षा के निदेशक प्रो. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ने मुख्य वक्ता का परिचय प्रस्तुत किया। कार्यक्रम समणी प्रणवप्रज्ञा के मंगलाचरण से प्रारम्भ किया गया। अंत में समणी नियोजिका डा. समणी अमलप्रज्ञा ने आभार ज्ञापित किया। कार्यक्रम में सभी शैक्षणिक व गैर शैक्षणिक कार्मिकों के साथ विद्यार्थीगण उपस्थित रहे।

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