मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं - मुनि श्री अर्हतकुमार
बोईसर (मुम्बई) : भाग्य और पुरुषार्थ जिंदगी के दो छोर है। जिसका एक सिरा वर्तमान में दूसरा 'हमारे जीवन के सुदूरव्यापी अतीत में अपना विस्तार लिए हुए हैं। है तो यह सच कि भाग्य का दायरा बड़ा है, जबकि वर्तमान के पाँवों के नीचे तो केवल दो पग धरती है। भाग्य के कोष में सचित कर्मों की विपुल पूँजी है, संस्कारो की अकूत राशि है, कर्मबीजों, प्रवृत्तियों एवं प्रारब्ध का अतुलनीय भंडार है। जबकि पुरुषार्थ के पास अपना कहने के लिए केवल एक पल है, जो अभी अपना होता है और अगले ही पल भाग्य के कोश में जा गिरेगा। तेरापंथ सभा भवन, बोईसर में धर्मपरिषद् को सम्बोधित करते हुए उपरोक्त विचार मुनि श्री अर्हत् कुमारजी ने कहे।
मुनिश्री ने आगे कहा कि भाग्य के इस व्यापक आकार को देखकर ही सामान्य जन सहम जाते हैं। अरे! यही क्यों? सामान्य जनों की कौन कहे, कभी-कभी तो विज्ञ, विशेषज्ञ और वरिष्ठ जन भी भाग्य के बलशाली होने की गवाही देते हैं। बुद्धि के सभी तर्क ज्योतिष की समस्त गणनाएँ, ग्रह-नक्षत्रों का समूचा दल बल इसी के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। ये सभी कहते हैं कि भाग्य अपने अनुरूप शुभ या अशुभ परिस्थितियों का निर्माण करता है। इतने पर भी पुरुषार्थ की महिमा कम नहीं होती। आत्मज्ञानी, तत्वदर्शी, अध्यात्मवेत्ता सामान्य जनों के द्वारा कहा-सुनी और बोली जाने वाली उपयुक्त सभी बातों को एक सीमा तक ही स्वीकारते है, क्योंकि वे जानते है कि पुरुषार्थ "आत्मा की चेतन्य शक्ति है, जबकि भाग्य केवल जड़ कर्मों का समुदाय।" जिस तरह छोटे से दिखने वाले सूर्यमंडल के उदय होते ही तीनों लोकों का अंधेरा भाग जाता है। ठीक उसी तरह पुरुषार्थ का एक पल भी कई जन्मों के भाग्य पर भारी पड़ता है।
मुनि श्री ने विशेष पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि पुरुषार्थ की प्रक्रिया यदि निरंतर अनवरत एवं अविराम जारी रहे तो पुराने भाग्य के मिटने व मनचाहे नये भाग्य के बनने में देर नहीं। पुरुषार्थ का प्रचण्ड पवन आत्मा पर छाये भाग्य के सभी आवरणों को छिन्न-भिन्न कर देता है। तब ऐसे संकल्पनिष्ठ पुरुषार्थी की आत्मशक्ति से प्रत्येक असंभव संभव बन जाता है। बाल संत मुनि श्री जयदीप कुमार जी ने अपने विचार व्यक्त किए।
समाचार साभार : ममता परमार
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