प्रेक्षाध्यान कार्यशाला का आयोजन
आत्म साक्षात्कार का अनुपम उपक्रम प्रेक्षाध्यान - मुनिश्री अर्हत् कुमारजी
गाँधीनगर, बंगलूरु ; श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा बैंगलोर के तत्वावधान में दो दिवसीय आवासीय कार्यशाला का आयोजन मुनि श्री अहर्त् कुमारजी ठाणा 3 के सान्निध्य में प्रेक्षा फाउंडेशन, जैन विश्व भारती, लाडनूं के अन्तर्गत आयोजित किया गया। सभाध्यक्ष कमलसिंह दुगड़ ने स्वागत किया।
मुनि अर्हतकुमारजी ने कहा कि ध्यान वह दूरबीन है जो भीतर में व्याप्त सूक्ष्म शक्तियों को देखकर उन्हें जागृत करती है। प्रेक्षाध्यान का अर्थ है गहराई में उतर कर देखना, आत्मा के द्वारा आत्मा की संप्रेक्षा करना। स्थूल चेतना के द्वारा सूक्ष्म चेतना को देखना। जानना और देखना चेतना का लक्षण है। आवृत चेतना में जानने और देखने की क्षमता क्षीण हो जाती है। उस क्षमता को विकसित करने का सूत्र है-जानो और देखो। भगवान् महावीर ने साधना के जो सूत्र दिए वहां अध्यात्म चेतना के जागरण का महत्वपूर्ण सूत्र है। किसी भी कार्य में प्रवृत्त होने से पहले मनुष्य अपने ध्येय का निर्धारण करता है। प्रेक्षाध्यान की साधना का पहला ध्येय है-चित्त को निर्मल बनाना। कषायों से मलिन चित्त में ज्ञान की धारा नहीं बह सकती। चित्त की निर्मलता होते ही ज्ञान प्रकट होता है, उसका अवरोध समाप्त हो जाता है। इसलिए हमारा पहला लक्ष्य है चित्त की निर्मलता।
उपसंपदा का पहला पड़ाव है वर्तमान में जीना। हमारा अधिकांश समय अतीत की उधेड़बुन में या भविष्य की कल्पना में बीतता है। अतीत भी वास्तविक नहीं है और भविष्य भी वास्तविक नहीं है। वास्तविक है वर्तमान। वर्तमान जिसके हाथ से छूट जाता है, वह उसे पकड़ ही नहीं पाता। इसलिए हमें वर्तमान में रह कर आत्म गुणों को वर्धमान करते रहना चाहिए। दूसरा पड़ाव है क्रिया करना पर प्रतिक्रिया नहीं ।आदमी प्रतिक्रिया का जीवन जीता है, Tit for Tat का अनुसरण करता है। पर यह साधना का बाधक तत्व है, इसलिए हमें प्रतिक्रिया का जीवन नहीं जीना चाहिए। उपसंपदा का तीसरा सूत्र है मैत्री। साधक का पूरा व्यवहार मैत्री से ओत:प्रोत हो, मैत्री की भावना पूर्ण विकसित हो। उपसंपदा का चौथा सूत्र है- मिताहार। परिमित भोजन का महत्त्वपूर्ण स्थान है साधना में। भोजन का प्रभाव केवल स्वास्थ्य पर ही नहीं होता, ध्यान और चेतना पर भी उसका प्रभाव होता है। आदमी अनावश्यक बहुत खाता है। अनावश्यक भोजन विकृति पैदा करता है। साधक को भोजन का पूरा ज्ञान होना चाहिए और कौन-सा भोजन क्या परिणाम लाता है, उसका भी ज्ञान होना चाहिये। पांचवा सूत्र है मित भाषण या मौन। आदमी से बोले बिना नहीं रहा जाता, किंतु कम बोलना साधना है। अगर हम मौन की साधना नहीं कर सके तो अनावश्यक ना बोले, जिससे शक्ति का अनावश्यक व्यय न हो। हर व्यक्ति को आचार्य श्री महाप्रज्ञजी का नूतन अवदान प्रेक्षाध्यान का प्रयोग कर जीवन में शांति का संचार करना चाहिए।
मुनि भरतकुमारजी ने कहा कि
जो करता है प्रेक्षाध्यान,
उसे मिल जाती है शांति, आनंद की अमूल्य खान,
वह बन जाता है महान,
उसको हो जाता है आत्मा का भान,
उसकी अध्यात्म से बढ़ती है शान,
इसलिए निरंतर करें प्रेक्षाध्यान।
मुनिश्री जयदीपकुमारजी ने शांति का संदेश दिया। इस कार्यशाला में लगभग 70 प्रेक्षाध्यान साधकों ने भाग लिया। प्रशिक्षक श्री डालमचन्द सेठिया, श्रीमति उर्मिला सुराणा, श्रीमति पुष्पा गन्ना, श्रीमति रेणू कोठारी एवं पूजा गुगलिया ने ध्यान, प्रणायाम, कायोत्सर्ग, श्वासप्रेक्षा, महाप्राण ध्वनि आदि अनेक विषयों का प्रयोग कराया गया। समता श्वासप्रेक्षा, अनुप्रेक्षा, अवचेतन मन और मंगल भावना आदि अनेक विषयों का प्रयोग एवं प्रक्षिक्षण प्रदान किया। इस कार्यशाला में बच्चों ने भी बड़े उत्साह से भाग लिया। कार्यशाला के समापन पर सभी संगभागियों को प्रमाणपत्र वितरित किये गये। संयोजक राजेन्द्र बैद ने धन्यवाद दिया।
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